बिहार की राजनीति में एक नये तरह की अवधारणा गढ़ी जा रही है। यह अवधारणा एक जाति विशेष की ओर से गढ़ी जा रही है। उसने यह बताने की कोशिश की है कि वही राजनीतिक दिशा तय करती है। मुजफ्फरपुर जिले की बोचहां विधान सभा सीट के लिए हुए उपचुनाव में भाजपा की हार को भूमिहारों की जीत बताया जा रहा है। इस संदर्भ में यह जानना जरूरी है कि बोचहां अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित सीट है और सुरक्षित सीटों पर दबंग जातियों का राजनीतिक हित नहीं जुड़ा होता है। इस कारण भाजपा की हार का कोई व्यापक राजनीतिक असर के रूप देखना उचित नहीं होगा।
वीरेंद्र
लेकिन भाजपा में उपेक्षा से त्रस्त भूमिहारों का एक खेमा बोचहां में भाजपा की हार को अपनी जीत बता रहा है। ये ऐसे लोग हैं, जो भाजपा की आतंरिक राजनीति से नाराज होकर अलग-अलग मोर्चों पर भूमिहार हित की बात उठा रहे हैं और अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा पर हमला कर रहे हैं। यही नाराज खेमा भाजपा के खिलाफ माहौल गरमाने की कोशिश कर रहा है। उसी परिस्थिति में बोचहां चुनाव में भाजपा की हार हो गयी। भाजपा ने बूथ प्रभारी से लेकर पन्ना प्रभारी तक तैनात कर रखा था। इसके बावजूद 36 हजार से अधिक वोट से भाजपा की हार विरोधियों को हमला करने का मौका दे दिया। एक कहावत है – बिल्ली की किस्मत से सिकहर टूटना। ऐसा ही कुछ बोचहां में हुआ।
बोचहां में भाजपा से अंसतुष्ट भूमिहारों का खेमा पार्टी में उपेक्षा के खिलाफ आग उगल रहा था। मुजफ्फरपुर में मंत्री रामसूरत राय और सांसद अजय निषाद के बढ़ते प्रभाव से नाराज था। उसने इसको एक मुद्दा बनाया और फिर अभियान भी चलाया। इसका अप्रत्यक्ष समर्थन पूर्व मंत्री सुरेश शर्मा का मिल रहा था। मुजफ्फरपुर जिले को सामाजिक स्तर पर भूमिहार प्रभाव वाला जिला माना जाता है। कई भूमिहार नेता इसी इलाके से प्रदेश और केंद्रीय राजनीति करते रहे हैं। लेकिन अब इस जिले में प्रदेश स्तरीय नेता भी भाजपा के पास नहीं हैं, तो गुस्सा स्वाभाविक है। स्थानीय स्तर पर जिले में यादव नेताओं के कद बढ़ने से भूमिहार नेताओं में आक्रोश स्वाभाविक है। भाजपा के खिलाफ उनका बगावत भी जायज था।
आंकड़े बता रहे हैं कि बोचहां में राजद की जीत में भूमिहारों की कोई भूमिका नहीं है। इस चुनाव में यादव, मुसलमान और पासवान जाति का शत-प्रतिशत वोट राजद को मिला। इनकी पोल कैपिसिटी भी अन्य जातियों की तुलना ज्यादा और आक्रामक है। वीआईपी को मल्लाह और रविदासों के साथ कुछ अन्य जातियों का वोट भी मिला। जब पांच बड़ी जातियों का वोट भाजपा को मिला ही नहीं तो 46 हजार वोट भाजपा को कहां से आया। दरअसल भाजपा को मिले वोटों का बड़ा हिस्सा भूमिहार और बनिया वोटों का है। इसके साथ राजपूत और ब्राह्मणों ने भाजपा के साथ अपनी जुगलबंदी की। नीतीश कुमार के आधार वोट ने भी भाजपा के साथ छल किया और वह विभिन्न खेमों में बंट गया।
वीरेंद्र यादव न्यूज ने बोचहां में भूमिहार प्रभाव और आबादी वाले बूथों के संबंध में जानकारी एकट्ठी की तो पता चला कि भूमिहार प्रभाव वाले बूथों पर भाजपा के पक्ष में जमकर मतदान हुआ है। इसका मतलब हुआ कि भाजपा का विरोध सिर्फ सड़कों पर था, जबकि मतदान केंद्रों पर भूमिहारों ने भाजपा का साथ दिया। इसके बावजूद भूमिहार भाजपा की हार का श्रेय लूटने में जुटे हुए हैं। जबकि अन्य जातियां अपनी बदलावकारी भूमिका को लेकर मौन हैं।
दरअसल भूमिहार अपनी भूमिका को लेकर संशय में हैं। भाजपा ने बारी-बारी से भूमिहार नेताओं को हाशिये पर धकेला। इस काम में भाजपा के वरिष्ठ नेता सुशील कुमार मोदी ने रणनीतिक रूप से भाजपा नेताओं का कद छोटा किया। उन्होंने लालू यादव विरोध के नाम पर भाजपा नेताओं और कार्यकर्ताओं को इतना उन्मादी बना दिया कि अपनी जमीन खिसक जाने का भूमिहारों को अहसास ही नहीं हुआ। और जब अहसास हुआ तो पैर के नीचे कुछ था ही नहीं। इसलिए सत्ता की मलाई चाभ चुके भूमिहार नेता अब छटपटा रहे हैं। उन्हें अब भाजपा असहज लगने लगी है। वे बगावत करना चाहते हैं, लेकिन जाएंगे कहां। आज भी राजद भूमिहारों के लिए अपच है। अब भूमिहार भाजपा पर दबाव बनाने के लिए राजद में जाने का भय दिखा रहे हैं, लेकिन यह संभव नहीं है। राजद भूमिहारों की पसंद नहीं हो सकता है और न राजद भूमिहारों को स्वीकार कर पायेगा। मालधारी भूमिहारों के राजद के टिकट पर सांसद या विधान पार्षद बनने से सामाजिक यथार्थ को बदला नहीं जा सकता है।
बोचहां में राजद की जीत में मुसाफिर पासवान की मौत से उपजी सहानुभूति, यादव-पासवान-मुसलमानों का एकमुश्त वोट और तेजस्वी यादव के प्रति युवा वोटरों का झुकाव की बड़ी भूमिका रही है। राजद की जीत में भूमिहारों या सवर्णों की कोई भूमिका नहीं है। इसके बावजूद यदि भूमिहार राजद की जीत का श्रेय हड़पने की कोशिश कर रहे हैं तो राजद नेतृत्व को सतर्क हो जाना चाहिए।
दरअसल पटना के मीडिया गलियारे में खास चर्चा रही है कि प्रमुख अखबारों के राजद बीट देखने वाले अधिकतर पत्रकार भूमिहार जाति के हैं। वह खबरों में भी भूमिहार पक्ष तलाश लेते हैं। हाल के चुनावों का विश्लेषण यही बताता है कि मीडिया का सवर्ण तबका यह बताने का काम कर रहा है कि राजद की जीत के पीछे सवर्णों का हाथ है, उनका योगदान है। बिहार में सवर्णों को लेकर नये तरह के नारे गढ़े जा रहे हैं। उनके वैचारिक बदलाव की बात कही जा रही है। सवर्णों में राजद के प्रति प्रेम बढ़ने का स्लोगन भी गढ़ा जा रहा है। इन बातों का कोई आधार नहीं है। कुछ सीटों के चुनाव परिणाम को देखकर बनायी गयी धारणा सही नहीं हो सकती है। पिछले विधान सभा चुनाव में भी राजद को अप्रत्याशित जीत मिली थी। इसका आशय यह नहीं था कि सवर्ण राजद को वोट दे रहे थे। वजह यह थी कि जदयू को हराने के लिए भाजपा ने लोजपा को आगे कर दिया था। राजद की जीत की बड़ी वजह जदयू के खिलाफ भाजपा की साजिश थी। ठीक इसी तरह बोचहां उपचुनाव में जदयू ने भाजपा को पराजित करने की साजिश की और अपने अतिपिछड़े वोटों को शिथिल कर दिया। इन वोटरों ने भाजपा के साथ राजद और वीआईपी को भी वोट दिया। पूर्व मंत्री रमई राम का राजनीतिक जुड़ाव बोचहां से रहा था और उनका आधार भी रहा था। इसका लाभ वीआईपी को मिला।
कुल मिलाकर बिहार में सभी पार्टियां अपने-अपने आधार वोट में विस्तार की कोशिश कर रही हैं। राजद और भाजपा में यह होड़ ज्यादा तेज है। बोचहां में राजद और भाजपा के आमने-सामने की लड़ाई थी। इस कारण दोनों पक्ष आक्रमक थे। भाजपा यादव वोटों को साधने की रणनीति पर काम कर रही थी तो राजद सवर्ण वोटरों पर नजर लगाये था। लेकिन अपने-अपने प्रयास में दोनों विफल रहे हैं। चुनाव परिणाम में भाजपा भले चुनाव हार गयी हो, लेकिन सवर्ण जातियों में आधार विस्तार में राजद भी हार गया है।
bochha lahr loot rahe bhumihar