नरेंद्र सिंह। समाजवादी नेता और पूर्व मंत्री। अब इतिहास हो गये। उनसे हमारी पहली मुलाकात संभवत: नवंबर, 2002 में हुई। विधान सभा का सेशन चल रहा था। उस समय हम ‘गरीब दर्पण’ नामक पत्रिका संपादित और प्रकाशित कर रहे थे। पत्रिका दम तोड़ने लगी थी और हम नयी नौकरी की तलाश कर रहे थे। इस कारण अखबारों में आना-जाना लगा रहता था। पत्रिका की चर्चा मीडिया और राजनीतिक गलियारे में हो जाया करती थी।
उस समय सुरेंद्र किशोर हिंदुस्तान, पटना में राजनीतिक संपादक थे। यादव होने का लाभ था कि समाजवादी धारा के नेता और पत्रकार दोनों हमारे प्रति सकारात्मक नजरिया रखते थे। सुरेंद्र किशोर उसी समाजवादी धारा के थे। जिस वक्त की हम बात कर रहे हैं, यानी नवंबर, 2002 में नरेंद्र सिंह किसी मुद्दे को लेकर काफी चर्चा में थे। सुरेंद्र जी ने हमें नरेंद्र सिंह का इंटरव्यू का जिम्मा सौंपा। उन्होंने संदर्भ और सवाल दोनों के बारे में बताया। मिलने का समय भी तय कर दिया। विधान सभा की लॉबी में नरेंद्र सिंह से मुलाकात हुई। काफी देर तक का इंटरव्यू चला। इंटरव्यू का विषय याद नहीं आ रहा है। हम अगले दिन इंटरव्यू लिखकर सुरेंद्र जी के पास पहुंचे। इस दौरान उन्होंने बताया कि नरेंद्र बाबू फोन किये थे और इंटरव्यू को लेकर चर्चा भी की थी। अगले दिन वह इंटरव्यू हिंदुस्तान में बाईलाइन प्रकाशित हुआ। इसके कुछ महीने बाद हम हिंदुस्तान में जुड़ गये थे। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि हिंदुस्तान में हमारी नियुक्ति में नरेंद्र सिंह के इंटरव्यू की बड़ी भूमिका थी। हमारी भाषा, शैली और प्रस्तुति राजनीतिक संपादक को पसंद आयी थी। हिंदुस्तान में जुड़ने के बाद हम लगातार प्रमुख राजनेताओं का इंटरव्यू करते रहे।
नरेंद्र सिंह से हमारी दूसरी मुलाकात कई वर्षों बाद हुई। 2017 में हमने पुस्तक ‘राजनीति की जाति’ प्रकाशित की थी। सुरेंद्र जी ने इसकी समीक्षा फेसबुक पर लिखी थी और इसके साथ हमारा नंबर भी दे दिया था। समीक्षा अपलोड होने के एक-दो दिन बाद नरेंद्र सिंह का फोन आया। किताब के बारे में चर्चा की और किताब की एक कॉपी खरीदने की बात कही। अगले दिन हम उनके पटना के फुलवारी स्थित आवास पर पहुंचे। उस समय पुस्तक की कीमत 1100 (ग्यारह सौ) रुपये थी। उन्होंने कीमत का भुगतान किया। इस दौरान कई मुद्दों पर बातचीत हुई। इसके बाद नजदीकी बढ़ी। एक साल बाद उस किताब की कीमत 2100 (इक्कीस सौ) हो गयी थी। उन्होंने किताब का दूसरा संस्करण भी खरीदा। उसी किताब का दूसरा संस्करण लगभग दुगुने दाम पर उन्होंने अपनी जरूरत के लिए खरीदी थी या हमारी जरूरत को समझ कर खरीदी थी। यह हम समझ नहीं पाये थे और उनसे कभी पूछ भी नहीं पाये।