सरकारी नौकरियों में आरक्षण संविधान प्रदत्त है। आरक्षण का दायरा धीरे-धीरे बढ़ता गया। प्रारंभ में अनुसूचित जाति और जनजाति को आरक्षण प्राप्त था। 1993 से केंद्रीय सेवाओं में ओबीसी को आरक्षण मिलने लगा। 2019 से गरीब सवर्णों के लिए भी सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था की गयी। सरकारी शैक्षणिक संस्थाओं में पढ़ाई में आरक्षण को लेकर भी अधिकतर जगहों पर आरक्षण है, लेकिन कहीं-कहीं स्थिति स्पष्ट नहीं है। बिहार में मुंगेरीलाल आयोग की अनुशंसा के आलोक में मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने 1978 में पिछड़ों और अतिपिछड़ों के लिए आरक्षण लागू किया था। आरक्षित कोटे की जातियों को आरक्षण के कारण कई प्रकार के लाभ हुए, अवसर मिले और इसका सामाजिक बदलाव में बड़ी भूमिका रही। आरक्षण के औचित्य, प्रासंगिकता और असर को लेकर बहस होती रही है और आगे भी जारी रहेगी।
2019 में गरीब सवर्णों के लिए आरक्षण लागू किया गया। किसी आयोग की अनुशंसा के बिना गरीब सवर्णों को आरक्षण दिया गया था। संसद और विधान मंडलों में बिना विरोध के सवर्णों के आरक्षण से संबंधित बिल पास भी हो गये। राजद समेत कुछ दलों ने इसका विरोध किया था, वह भी निरर्थक रहा। प्रारंभ में लगता था कि सवर्णों को आरक्षण देने से अन्य आरक्षित वर्गों को नुकसान होगा। उनकी हकमारी होगी। हालांकि सरकार ने पूर्व निर्धारित आरक्षण की सीमा में छेड़छाड़ किये बगैर गरीब सवर्णों को आरक्षण दिया था।
गरीब सवर्णों को आरक्षण दिये जाने को लेकर अन्य जातीय और सामाजिक संगठनों ने विरोध किया था। उस दौर में वीरेंद्र यादव न्यूज ने अपने अंक लिखा था कि इससे सवर्णों को सबसे बड़ा नुकसान होने वाला है। हमने फरवरी, 2019 के अंक में इस संबंध में कवर स्टोरी लिखा था और कहा था कि इससे सवर्ण स्वाभिमान स्वाहा हो गया है। इसमें हमने सवर्ण आरक्षण के सामाजिक, शैक्षणिक और मनोबलगत विषयों को उठाया था। हमने कहा था कि खुद को श्रेष्ठ बताने वाले सवर्णों के हाथों में आरक्षण का कटोरा थमा दिया गया है और वह अब जाति प्रमाण पत्र के लिए दफ्तर-दफ्तर चक्कर लगाएंगे।। लेकिन बात अब इससे आगे बढ़ गयी है। सवर्ण आरक्षण के बाद अनेक प्रतियोगी परीक्षाओं के परिणाम आए और उनके कटऑफ मार्क्स सार्वजनिक किये गये हैं। इसमें यह दिखने लगा है कि ओबीसी छात्रों से भी कम मार्क्स गरीब सवर्णों को आ रहे हैं। इसका सीधा मतलब है कि कल तक प्रतिभा का खोल ओढ़कर पर खुद को सर्वश्रेष्ठ बताने वाले समाज का असली चेहरा सामने आ गया है।
अब एक सवाल यह भी है कि जब देश की सभी जातियों अलग-अलग शर्तों के साथ आरक्षण के दायरे में आ गयी हैं, तक सामान्य श्रेणी के लिए कौन चयनित हो रहा है। मतलब ओबीसी के लिए क्रीमीलेयर की सीमा है तो गरीब सवर्णों के लिए आय सीमा को निर्धारित किया गया है। हमें लगता है कि अब प्रतियोगी परीक्षा के रिजल्ट का समाजशास्त्रीय अध्ययन भी जरूरी हो गया है। इससे यह स्पष्ट हो सकेगा कि सफल परीक्षार्थी की सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक पृष्ठभूमि क्या रही है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी राजनीतिक या सामाजिक विवशताओं के कारण गरीब सवर्णों को आरक्षण देने का निर्णय लिया होगा। इसके राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव का भी आकलन किया होगा। लेकिन सवर्ण आरक्षण का असर क्रांतिकारी हुआ है। इसने बता दिया कि सवर्णों की बौद्धिक क्षमता ओबीसी जातियों के समरूप ही है। उनमें कोई वंशानुगत प्रतिभा नहीं है। सुविधा, संसाधन और माहौल के कारण उनकी उपलब्धि ज्यादा दिख रही होगी, लेकिन जब यही सुविधा, संसाधन और माहौल ओबीसी को मिलने लगी तो सवर्णों से बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं, श्रेष्ठ परिणाम ला रहे हैं। स्कूल, कॉलेज या विश्वविद्यालयों की परीक्षाओं में भी ओबीसी और अन्य आरक्षित श्रेणी के छात्र सवर्णों से बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं, टॉप रैंक में आ रहे हैं। नौकरियों के लिए होनी वाली परीक्षाओं में भी टॉप रैंक ला रहे हैं।
आरक्षण की व्यवस्था के खिलाफ सवर्णों ने ‘बौद्धिक आतंक’ मचा रखा था। उन्हें लगता था कि आरक्षण के कारण कम प्रतिभा वाले उनसे बेहतर अवसर हासिल कर रहे हैं। इस बात को लेकर हंगामा भी खूब करते थे। मंडल आयोग के खिलाफ सवर्णों का हिंसक विरोध बौद्धिक आंतक का विस्फोट ही था। इसकी कानूनी लड़ाई भी उन्होंने लड़ी। कानूनी प्रक्रिया में वे कई बार भारी भी पड़े, लेकिन अंतत: मंडल आयोग की अनुशंसा के आलोक में आरक्षण की व्यवस्था लागू की गयी। शैक्षणिक संस्थानों में भी आरक्षण की व्यवस्था की गयी।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सवर्णों को एक झटके में आरक्षण देने की घोषणा कर दी और इसके लिए संविधान में संशोधन भी किया गया। इसके बाद सवर्णों ने खूब जश्न मनाया। उन्हें लगा कि ‘गोल्डेन एज’ आ गया है। उन्हें भी अब बेहतर मौके मिलेंगे। स्वाभाविक था। लेकिन सवर्ण आरक्षण के बाद आने वाली प्रतियोगी परीक्षाओं के परिणाम में सवर्ण आरक्षण का ‘साइड इफेक्ट’ दिखने लगा। कैटगरीवाइज कटऑफ मार्क्स सार्वजनिक होने के बाद स्पष्ट होने लगा कि सवर्णों से बेहतर प्रदर्शन गैरसवर्ण कर रहे हैं। सवर्णों की प्रतिभा पर से आवरण भी हटने लगा। इसका एक पॉजिटीव रिजल्ट यह आया कि गैरसवर्ण छात्रों ने सवर्णों के बौद्धिक आतंक को नकारा शुरू कर दिया। सवर्णों की जातीय अहंकार को क्लास रूम से लेकर यूनिवर्सिटी कैंपस तक चुनौती मिलने लगी। सवर्ण आरक्षण ने कोचिंग संस्थानों से लेकर विश्वविद्यालय कैंपस तक का माहौल बदल दिया। सवर्णों के बौद्धिक अहंकार को हर जगह चुनौती मिलने लगी। सवर्ण आरक्षण के कारण सवर्ण जातियां भी आरक्षण की लाइन में खड़ी हो गयी थीं। इस कारण आरक्षण के आधार पर होने वाला भेदभाव समाप्त हो गया। परीक्षा परिणामों ने बता दिया कि सवर्णों की प्रतिभा दलितों से अलग या अधिक नहीं है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सवर्णों को आरक्षण देकर उनके ‘बौद्धिक आतंक’ पर जबरदस्त प्रहार किया था। सामान्य तौर पर यह प्रहार दिखता नहीं है। लेकिन इसका असर अब दिखने लगा है। प्रतियोगी परीक्षाओं के परिणाम इसके गवाह हैं। गरीब सवर्णों के लिए दिया आरक्षण उनके लिए ‘मीठा जहर’ साबित हो रहा है। सबसे पहले आरक्षण ने उनके बौद्धिक अहंकार को ध्वस्त कर दिया। उनके सामाजिक वर्चस्व को चुनौती मिलने लगी और तीसरी सबसे बड़ी बात है कि सवर्ण भी जाति प्रमाण पत्र के लिए कार्यालयों का चक्कर लगा रहे हैं। मतलब आरक्षण की एक व्यवस्था ने सवर्णों को कई मोर्चों पर एक साथ कमजोर किया है। इसके साथ ही अन्य जातियों को सवर्णों से मुकाबले और उनको चुनौती देने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित किया।
सवर्ण आरक्षण ने सामाजिक और शैक्षणिक गैरबराबरी को समाप्त करने की दिशा में एक बड़ा कदम साबित हुआ है। इससे गैरसवर्णों को बहुपक्षीय लाभ हुआ है, जबकि सवर्णों को कई मोर्चों पर नुकसान उठाना पड़ा है। इसने सामाजिक समरूपता और शैक्षणिक समानता के प्रयास को बड़ी ताकत दी है।