पटना में हमारे साथी हैं नवल किशोर। पिछले दिनों 9 जनवरी को उनकी मां का निधन हो गया था और शनिवार को उनका श्राद्ध था। शाम को श्राद्ध में पहुंचा तो एकदम गांव के माहौल में पहुंच गया। श्राद्ध का भोज, न उम्र की सीमा, न जाति का बंधन। बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक सभी एक ही पांत में। जगह देखकर कर बैठ जाइए।
बुंदिया और पूड़ी, यही मेन मीनू होता है श्राद्ध का। सब्जी का प्रकार, मिठाई की संख्या और अन्य खाद्य सामग्री परिजनों की इच्छा पर। रायता भी मेन मीनू का हिस्सा होता है। इस श्राद्ध के भोज में हम भी पांत में बैठ गये, लेकिन लिक्विड प्रोफाइल बढ़ने का दबाव मन पर था, इसलिए संयम ही बरतना पड़ रहा था।
नवल जी ने श्राद्ध को स्मरणीय बनाने के लिए अपनी ओर से खास और सार्थक पहल की थी। उन्होंने ‘मां के नाम’ शीर्षक से एक पुस्तिका प्रकाशित कर दी है। 42 पृष्ठों की इस पुस्तिका में मां से जुड़े संस्मरण के साथ देहांत के बाद लिखी गयी डायरी और परिवार के सदस्यों का स्व. रुणा देवी के प्रति उद्गार भी शामिल है। इसे आप साहित्यिक पहल भी कह सकते हैं। मां के प्रति श्रद्धांजलि का नया स्वरूप भी कह सकते हैं।
नवलजी के घर में हम पहले भी कई बार जा चुके हैं। मां-पिता के साथ परिवार के अन्य सदस्यों के साथ मुलाकात होती रही थी। लेकिन नया घर बनने के बाद पहली बार गये थे। घर की छत पर ही भोज का इंतजाम था। अब गांव हो या शहर पांत का स्वरूप हर जगह बदल गया है। बोरा, दरी या टाट पर बैठ कर खाने की परंपरा समाप्त होती जा रही है। इसकी जगह टेबुल और कुर्सी ने ले ली है। हालांकि श्राद्ध के भोज में खाना परोसने का जिम्मा अभी भी गांव-मुहल्ले के युवा उठा लेते हैं। इससे परिवार के अभिभावकों और अन्य सदस्यों को सहूलियत हो जाती है। आपसी सहयोग की भावना जीवंत दिखती है। इस जीवंतता के बीच ‘मां के नाम’ ने श्राद्ध और श्रद्धांजलि का एकाकार कर दिया है।