Cover Story of BYN, Sep 23
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जाति — लोकसभा — विधान सभा
यादव— 05 — 52
राजपूत— 07 — 28
भूमिहार— 03 — 21
चमार— 01 — 13
दुसाध — 04 — 13
कुल — 20 — 127
कुल सीट — 40 — 243
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सम्मानजनक हिस्सेदारी, पर्याप्त प्रतिनिधित्व, जनसंख्या के अनुपात में भागीदारी। ये सब राजनीतिक जुलमा हैं, वोटरों का बहकाने का आजमाया हुआ नुस्खा। पहले अनारक्षित सीटों पर प्रतिनिधित्व के नाम पर सवर्ण जातियों का कब्जा था। समाजवादी आंदोलन की जड़ मजबूत होने के बाद इसमें यादव और कोईरी जैसी मजबूत जातियों का दखल बढ़ता गया। आरक्षित सीटों पर चमार-दुसाध का कब्जा बरकरार रहा।
अगले साल यानी 2024 में लोकसभा का चुनाव होने वाला है। चुनाव को लेकर हर पार्टी एवं गठबंधन ने तैयारी शुरू कर दी है। जातियां भी इसमें पीछे नहीं हैं। वे अलग-अलग लोकसभा सीटों पर अपने-अपने हिसाब और संख्या के आधार पर दावेदारी कर रही हैं। अब हर पार्टी में सीट के हिसाब से दावेदारी जतायी जा रही है। पार्टी आधारित लोकतंत्र में जाति अब सबसे बड़ा प्रेशर ग्रुप हो गया है। टिकट वितरण में हर पार्टी को जाति के दबाव का सामना करना पड़ता है। यह भी कह सकते हैं कि पार्टियां अब जातीय हितों को संतुष्ट करने की रणनीति पर काम कर रही हैं।
राजनीति में दो चीज होती हैं। पहला संगठन और दूसरा उम्मीदवार। संगठन बाहरी ढांचा है। उसमें हाथ-पैर, नाक-मुंह सब दिखता है। यह पार्टी का स्थायी स्वरूप है और इस स्वरूप में बदलाव या बिखराब एक लंबी प्रक्रिया है। यह क्रमिक विकास भी है। संगठन को हम पार्टी का शक्तिकेंद्र भी कह सकते हैं। इस शक्ति केंद्र को मजबूत बनाने के लिए जनाधार विस्तार आवश्यक प्रक्रिया है। इसमें असीम संभावना भी है। समय और समीकरण के हिसाब से पार्टियों का आधार बढ़ता-घटता रहता है। लेकिन पार्टी की संगठनात्मक शक्ति के अभिव्यक्ति का माध्यम है चुनाव। चुनाव को लोकतंत्र की आत्मा भी कह सकते हैं। इस चुनाव के माध्यम से हम सांसद या विधायक चुनते हैं और वे मिलकर सरकार बनाते हैं। सरकार का गठन निर्वाचित प्रतिनिधियों के संख्या बल पर निर्भर करता है।
चुनाव के लिए सबसे जरूरी तत्व है उम्मीदवार। यही उम्मीदवार चुनाव में पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हैं। चुनाव में निर्वाचित उम्मीदवार सांसद या विधायक बनते हैं और यही सांसद या विधायक सरकार बनाते हैं। उनकी संख्या पर सरकार का गठन और भविष्य निर्भर करता है। बिहार के संदर्भ में बात करें तो लोकसभा या विधान सभा की आधी सीटों पर पांच जातियों का कब्जा है। आधे विधायक या सांसद यादव, राजपूत, भूमिहार, चमार और दुसाध जाति के होते हैं।
बिहार सरकार द्वारा जाति आधारित गणना के लिए बने प्रारूप में 215 जातियों की पहचान की गयी है। इनमें से सिर्फ 5 जातियों का आधा सीटों पर कब्जा है। चमार, दुसाध, यादव, राजपूत और भूमिहार ही आधी सीट हड़प लेते हैं। शेष बची सीटों पर कोईरी, कुर्मी, मुसलमान, ब्राह्मण, कलवार और तेली कब्जा जमा लेते हैं। इन 10-12 जातियों को छोड़ दें तो लगभग 200 जातियों का कोई नाम लेवा भी नहीं है। कभी-कभार एकाध सीट पर कोई जीत गया तो यह उस जाति का सौभाग्य है।
उम्मीदवार की सबसे बड़ी योग्यता होती है उनकी जाति। उसके बाद संसाधन। यह भी संयोग है कि जिस जाति की आबादी ज्यादा है, उसके पास संसाधनों की भी भरमार है। चमार-दुसाध के बाद संसाधन कम हैं, लेकिन आरक्षित श्रेणी की सीटों पर उनकी तुलना में अन्य जातियों के पास आबादी और संसाधन दोनों इन दो जातियों से कम है। इसलिए निर्वाचित सीटों पर इनकी संख्या ज्यादा होती है।
अनारक्षित सीटों पर खुला मुकाबला होता है। इसमें पार्टी के टिकट के साथ उम्मीदवार की जाति, संसाधन और सामाजिक प्रभुता बहुत मायने रखता है। राजपूत और भूमिहार की आबादी कम होने के बावजूद संसाधन और सामाजिक प्रभुता के कारण अपनी आबादी से दुगुनी-तिगुनी सीटों पर कब्जा जमा लेती हैं। इनको सबसे कड़ा मुकाबला यादव से झेलना पड़ता है, क्योंकि यादव जाति आबादी के साथ ही संसाधन और सामाजिक प्रभुता के मामले में उनसे ज्यादा मजबूत हो गयी है। इस कारण ऊपरी स्तर पर इन तीन जातियों में आपसी समन्वय का भाव भी पैदा हो गया है। इन जातियों ने मान लिया है कि आपस की लड़ाई चाहे जितनी कड़ी हो, लेकिन चौथी जाति को इंटर नहीं करने देना है। यही कारण है कि 2019 में जहानाबाद सीट से एक कहार उम्मीदवार के जीतने के बाद यादव और भूमिहार दोनों जाति खुद को पराजित मान रही थीं। इस मामले में पार्टी का कोई बंधन नहीं था।
पूरे प्रदेश की सामाजिक बनावट और बसावट एक तरह की नहीं है। इसका असर भी चुनाव में जाति विशेष की हार-जीत पर पड़ता है। मिथिलांचल और सीमांचल की बनावट और बसावट बिहार के अन्य हिस्सों से अलग है। इस कारण चुनाव में टिकट के साथ हार-जीत के फैसले में राजपूत, भूमिहार और यादव का फैक्टर काम नहीं करता है। इन इलाकों में चुनाव पर धर्म का असर ज्यादा दिखायी पड़ता है। कम आबादी वाली जातियों का प्रतिनिधित्व भी मिथिलाचंल और सीमांचल से ही निकलता है। हालांकि जातियों के क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व का कोई वैज्ञानिक फार्मूला नहीं है। लेकिन पार्टियां उम्मीदवार के चयन में जाति की आबादी, संसाधन और प्रभुत्व का ध्यान जरूर रखती है। इस दौर में सामाजिक प्रतिनिधित्व का भी ख्याल रखना पड़ता है। इसके साथ ही उम्मीदवार के चयन में जीतने की संभावना सर्वोच्च प्राथमिकता होती है। इसमें कुछ जातियां ही ज्यादा प्रबल दिखती हैं। इसलिए पार्टियों भी उन्हें ही प्राथमिकता देती हैं।